Hakim Rais Sambhal
गरीब और जरूरतमंद लोगों को दो जून की रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल होता है। ऐसे में उन्हें छोटी या बड़ी कोई बीमारी हो जाए तो आफत आ जाती है। ऐसे ही लोगों की सेवा में करीब 150 साल से जुटा है सम्भल का हकीम परिवार। पुश्तों से चले आ रहे सेवा भाव को आज तीसरी पीढ़ी में हकीम जफर अहमद सादिक साहब बखूबी निभा रहे हैं। फीस तो ये किसी से नहीं लेते, सिर्फ दवाओं के रुपये लेते हैं। जिनके पास नहीं होता है उनसे ये भी नहीं लेते।
हर दिन बिना कोई अवकाश लिए शहर के मिया सराय मुहल्ले में हकीम जफर अपनी क्लीनिक पर बैठते हैं। तय समय 9.30 बजे क्लीनिक पहुंचकर मरीज देखने का सिलसिला दोपहर में जौहर की नमाज तक जारी रहता है। हर दिन 380 से 450 मरीजों का औसत रहता है। हाथों की नब्ज टटोलकर मर्ज बताने में माहिर हकीम जफर जो दवा देते हैं वह नेपाल, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की वादियां से लाई गई जड़ी-बूटियों से बनाई जाती है। इन्हीं जड़ी बूटियों से इन्होंने कैंसर जैसे मर्ज ठीक किए तो रीढ़ की हड्डी में दिक्कत में न बैठ पाने वाली एक किशोरी को नवजीवन दिया।
हर दिन वेस्ट यूपी के 14 जनपदों के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश से भी मरीज इनके पास आते हैं। अपने पिता जनाब हकीम रईस तथा दादा हकीम सरगीर अहमद की विरासत को बेहतर ढंग से 37 सालों से संभाले हुए हैं। चौथी पीढ़ी के रूप में उनके बेटे हकीम बुकरात अहमद सादिक भी परंपरा को आगे बढ़ाने में जुटे हैं। हकीम बुकरात दो दिन हरियाणा तो दो दिन सम्भल व दो दिन दिल्ली में बैठते हैं। जबकि हकीम जफर दो से तीन माह में एक बार अरब कंट्री में मरीजों को देखने जाते हैं। हकीम साहब बताते हैं कि उनके पिता के कार्यकाल में वर्ष 1999 में सम्भल में आकर फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार ने भी एक बार दवा ली थी। बाद में उनकी दवाएं उनके यहां से कर्मचारी आकर ले जाता था।
अस्सी के दशक में हकीम जफर राष्ट्रीय स्तर के वॉलीबाल खिलाड़ी रहे हैं। 1974 में जूनियर नेशनल खेलने के बाद उन्होंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में बीयूएमएस में दाखिला लिया। 1976 में यूनिवर्सिटी टीम के कप्तान रहे और उनकी टीम ने सीनियर नेशनल खेला। टीम तीसरे स्थान पर रही थी।
साठ साल की उम्र में भी 40 वर्ष के दिखने वाले हकीम जफर से जब इसका राज पूछा गया तो उनकी अनुशासित दिनचर्या सामने आई। वर्ष 1969 से वह हर दिन सात किलोमीटर की दौड़ लगाते हैं। कहते हैं कि यदि मैं सफर में हूं तो गाड़ी रोकवाकर अपने समय पर दौड़ता हूं। दुबई में रहता हूं तो वहां भी गाड़ी किनारे खड़ी करवाकर दौड़ता हूं। खाने पर ध्यान दिया। पेट की जरूरत से कम खाया।
बहादुर खां : सिसौना
आशकार हुसैन
Hakim Rais Sambhal |
हर दिन बिना कोई अवकाश लिए शहर के मिया सराय मुहल्ले में हकीम जफर अपनी क्लीनिक पर बैठते हैं। तय समय 9.30 बजे क्लीनिक पहुंचकर मरीज देखने का सिलसिला दोपहर में जौहर की नमाज तक जारी रहता है। हर दिन 380 से 450 मरीजों का औसत रहता है। हाथों की नब्ज टटोलकर मर्ज बताने में माहिर हकीम जफर जो दवा देते हैं वह नेपाल, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश की वादियां से लाई गई जड़ी-बूटियों से बनाई जाती है। इन्हीं जड़ी बूटियों से इन्होंने कैंसर जैसे मर्ज ठीक किए तो रीढ़ की हड्डी में दिक्कत में न बैठ पाने वाली एक किशोरी को नवजीवन दिया।
Dilip Kumar Sambhal |
Hakim Zafar Sambhal |
अस्सी के दशक में हकीम जफर राष्ट्रीय स्तर के वॉलीबाल खिलाड़ी रहे हैं। 1974 में जूनियर नेशनल खेलने के बाद उन्होंने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में बीयूएमएस में दाखिला लिया। 1976 में यूनिवर्सिटी टीम के कप्तान रहे और उनकी टीम ने सीनियर नेशनल खेला। टीम तीसरे स्थान पर रही थी।
साठ साल की उम्र में भी 40 वर्ष के दिखने वाले हकीम जफर से जब इसका राज पूछा गया तो उनकी अनुशासित दिनचर्या सामने आई। वर्ष 1969 से वह हर दिन सात किलोमीटर की दौड़ लगाते हैं। कहते हैं कि यदि मैं सफर में हूं तो गाड़ी रोकवाकर अपने समय पर दौड़ता हूं। दुबई में रहता हूं तो वहां भी गाड़ी किनारे खड़ी करवाकर दौड़ता हूं। खाने पर ध्यान दिया। पेट की जरूरत से कम खाया।
बहादुर खां : सिसौना
आशकार हुसैन