१७ साल बाद बिलकिस बानो को मिला इन्साफ : सरकार ने दिया ५० लाख मुआवजा और एक सरकारी नौकरी
बिलकिस बानो : मुझे ख़ुशी है कि अदालत ने मेरे साथ हुई नाइंसाफ़ी को समझा, मेरे संघर्षों को समझा.
मैं अदालत और उन लोगों की शुक्रगुज़ार हूं जो मेरे साथ खड़े रहे लेकिन मुझे ज़्यादा ख़ुशी होती अगर यही इंसाफ़ मुझे अपने राज्य गुजरात में मिल गया होता.
मैं गुजराती हूं.मेरा जन्म गुजरात में हुआ है, मैं गुजरात की बेटी हूं. मैं जितनी अच्छी तरह से गुजराती बोलती हूं, वैसे हिंदी बोल भी नहीं पाती. जब मैं अपने राज्य में ख़ौफ़ के साये में जी रही थी तब मुझे बेहद निराशा होती थी. गुजरात सरकार ने मेरी कोई मदद नहीं की.
मैं कभी स्कूल नहीं गई, मैंने कभी पढ़ाई नहीं. उस वक़्त लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता था.
मैं बहुत कम बोलने वाली बच्ची थी. मुझे अपने बालों में कंघी करना, करीने से बाल संवारना और आंखों में काजल लगाना बहुत पसंद था लेकिन पिछले 17 साल मेरे लिए बेहद दर्दनाक रहे हैं और अब इन चीजों को याद करना भी मेरे लिए मुश्किल होता है.
हम अपने परिवार के साथ ख़ुशी-ख़ुशी रहते थे. मेरी मां, बहनें, भाई और पिताजी...हम सब साथ में ख़ुश थे लेकिन अब हम अकेले हो चुके हैं.
जब हमारी शादी हुई, हम हमेशा साथ रहना पसंद करते थे. जब भी अपने माता-पिता के घर जाती थी, कुछ दिन बाद ये (याक़ूब, बिलकीस के पति) भी वहां मुझसे मिलने आ जाते थे.
हम दिन-रात मेहनत कर रहे थे और हमारी ज़िंदगी धीरे-धीरे बेहतर हो रही थी. जब मेरे, मेरे पति और मेरे परिवार के लिए और अच्छी ज़िंदगी के लिए काम करने का वक़्त आया तभी दुखों का पहाड़ हम पर टूट पड़ा. साल 2002 में वो भयानक घटना घटी जिसके बाद मुझे और मेरे परिवार को इन सारी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा.
मेरे परिवार के 14 सदस्यों को बर्बरता से मार डाला गया. जब मेरे साथ बलात्कार हुआ, उस वक़्त मैं गर्भवती थी. मैं रोई, मैं चिल्लाई, मैं गिड़गिड़ाई लेकिन मेरे साथ क्रूरता से बलात्कार किया गया. मेरी प्यारी सी नन्ही बच्ची सालेहा को मेरे सामने मार डाला गया.
उस दौरान मैं जिस दर्द और यातना से गुज़री, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. सालेहा मेरी पहली बेटी थी.
याक़ूब और मैं अपनी बच्ची को अपने रीति-रिवाज से दफ़ना भी नहीं पाए. हम उसके लिए ऐसी क़ब्र भी नहीं ढूंढ पाएं जहां जाकर उसकी आत्मा की शांति के लिए दुआ कर सके. मेरा प्यारा परिवार इन सबसे पूरी तरह विक्षप्त हो गया था.
हम ज़िंदगी में आगे बढ़ना चाहते थे लेकिन उस भयंकर घटना के बाद पहले तो हमारी ज़िंदग़ी रुक सी गई और उसके बाद जैसे हमें लगातार पीछे धकेला जाता रहा.
मैंने ट्रेनों को हमेशा रेलवे लाइनों पर दौड़ते देखा था. मैंने कभी कोई बड़ा रेलवे स्टेशन नहीं देखा था.
जब गोधरा स्टेशन पर वो अमानवीय घटना घटी, मैं अपने पति के साथ थी. उस वक़्त मैंने बिल्कुल नहीं सोचा था कि इसके बाद कुछ इतना ख़तरनाक हो सकता है.
मैं और मेरे पति याक़ूब अपने 14 परिजनों की हत्या के बाद टूट गए थे लेकिन बाद में यही तकलीफ़ और निराशा हमारी ताक़त बन गई. पहले हम फ़िल्में देखते थे लेकिन पिछले 17 सालों में एक भी फ़िल्म नहीं देखी. याक़ूब ने सिर्फ़ एक फ़िल्म देखी, वो भी दोस्तों की ज़िद पर.
इन 17 सालों में बस एक राहत थी- हम दोनों के बीच किसी तरह की कड़वाहट या मतभेद का न होना.
इन वर्षों में बहुत से लोगों ने याक़ूब को क़ानूनी लड़ाई छोड़कर रोज़ी-रोटी पर ध्यान देने की सलाह दी.
ऐसी सलाहें देने वालों में हमारे बहुत से शुभचिंतक भी थे. वो हमारी आर्थिक तंगी के गवाह थे. उन्हें मालूम था कि हम कैसे इधर-उधर भटकते हुए जी रहे हैं.
कई बार हम दोनों को भी लगता था कि वो ठीक कह रहे हैं. वो सही थे लेकिन मैंने और मेरे पति ने हमेशा ये महसूस किया कि इंसाफ़ के लिए हमारी लड़ाई एक स्थायी ज़िंदगी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ज़रूरी है और इसलिए हमने अपनी लड़ाई जारी रखी.
जब भी हमारे मन में लड़ाई छोड़ने का ख़याल आता, हमारी अंतरात्मा हमें रोक लेती और हम फिर अपने रास्ते पर लौट आते.
17 सालों की इस लड़ाई में हमें अनगिनत मुश्किलें पेश आईं लेकिन समाज, महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, सीबीआई, मानवाधिकार आयोग, सिविल सोसायटी और समाज के अलग-अलग तबके के लोगों ने हमारी मदद की इसलिए हम इन मुश्किलों का सामना कर पाए.
17 साल तक संघर्ष करने और नाइंसाफ़ी के साथ जीने के बावजूद मैंने और मेरे पति ने देश की क़ानून-व्यवस्था में भरोसा रखा. मुझे यक़ीन था कि एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा जब मुझे इंसाफ़ मिलेगा और मुझे लगता है कि मेरे यक़ीन की जीत हुई है.
अब मुझे इंसाफ़ मिल गया है लेकिन अपने परिवार के 14 लोगों को खोने का दर्द मेरे दिल से कभी जाता ही नहीं. अगर मैं दिन में ख़ुद को व्यस्त भी रखती हूं तो रात में वो डरावनी यादें मुझ तक वापस आ जाती हैं.
जब ये केस चल रहा था, मुझे हमेशा ऐसा लगता था जैसे कोई हर वक़्त मुझ पर नज़र रख रहा है और मेरा पीछा कर रहा है. अब जब मुझे न्याय मिल गया है, मैंने अहसास किया ये कुछ और नहीं बल्कि मेरे अंदर बैठा डर था.
हमें एक लंबी लड़ाई के बाद इंसाफ़ मिला लेकिन पूरे परिवार को खोने के दर्द और अपनी बेटी सालेहा की यादों ने मेरे अंदर और हमारी ज़िंदगियों में एक तरह का अकेलापन भर दिया, ये खालीपन हमारे अंदर बैठ चुका है और हमेशा हमारे साथ रहेगा.
अब मैं अपने बच्चों के साथ शांति से जीना चाहती हूं. मेरा सपना अपनी बेटी को वकील बनते और नाइंसाफ़ी का शिकार हुए लोगों को इंसाफ़ दिलाते देखना है.
मैं यही दुआ करती हूं देश में नफ़रत और हिंसा की जगह प्यार और अमन ले ले. (Source BBC)
Has Narendra Modi changed his ideology for Muslims ?
मैं अदालत और उन लोगों की शुक्रगुज़ार हूं जो मेरे साथ खड़े रहे लेकिन मुझे ज़्यादा ख़ुशी होती अगर यही इंसाफ़ मुझे अपने राज्य गुजरात में मिल गया होता.
Bilkis Bano Gujarat Riots Survivor |
मैं गुजराती हूं.मेरा जन्म गुजरात में हुआ है, मैं गुजरात की बेटी हूं. मैं जितनी अच्छी तरह से गुजराती बोलती हूं, वैसे हिंदी बोल भी नहीं पाती. जब मैं अपने राज्य में ख़ौफ़ के साये में जी रही थी तब मुझे बेहद निराशा होती थी. गुजरात सरकार ने मेरी कोई मदद नहीं की.
मैं कभी स्कूल नहीं गई, मैंने कभी पढ़ाई नहीं. उस वक़्त लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता था.
मैं बहुत कम बोलने वाली बच्ची थी. मुझे अपने बालों में कंघी करना, करीने से बाल संवारना और आंखों में काजल लगाना बहुत पसंद था लेकिन पिछले 17 साल मेरे लिए बेहद दर्दनाक रहे हैं और अब इन चीजों को याद करना भी मेरे लिए मुश्किल होता है.
हम अपने परिवार के साथ ख़ुशी-ख़ुशी रहते थे. मेरी मां, बहनें, भाई और पिताजी...हम सब साथ में ख़ुश थे लेकिन अब हम अकेले हो चुके हैं.
जब हमारी शादी हुई, हम हमेशा साथ रहना पसंद करते थे. जब भी अपने माता-पिता के घर जाती थी, कुछ दिन बाद ये (याक़ूब, बिलकीस के पति) भी वहां मुझसे मिलने आ जाते थे.
हम दिन-रात मेहनत कर रहे थे और हमारी ज़िंदगी धीरे-धीरे बेहतर हो रही थी. जब मेरे, मेरे पति और मेरे परिवार के लिए और अच्छी ज़िंदगी के लिए काम करने का वक़्त आया तभी दुखों का पहाड़ हम पर टूट पड़ा. साल 2002 में वो भयानक घटना घटी जिसके बाद मुझे और मेरे परिवार को इन सारी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा.
मेरे परिवार के 14 सदस्यों को बर्बरता से मार डाला गया. जब मेरे साथ बलात्कार हुआ, उस वक़्त मैं गर्भवती थी. मैं रोई, मैं चिल्लाई, मैं गिड़गिड़ाई लेकिन मेरे साथ क्रूरता से बलात्कार किया गया. मेरी प्यारी सी नन्ही बच्ची सालेहा को मेरे सामने मार डाला गया.
उस दौरान मैं जिस दर्द और यातना से गुज़री, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. सालेहा मेरी पहली बेटी थी.
याक़ूब और मैं अपनी बच्ची को अपने रीति-रिवाज से दफ़ना भी नहीं पाए. हम उसके लिए ऐसी क़ब्र भी नहीं ढूंढ पाएं जहां जाकर उसकी आत्मा की शांति के लिए दुआ कर सके. मेरा प्यारा परिवार इन सबसे पूरी तरह विक्षप्त हो गया था.
हम ज़िंदगी में आगे बढ़ना चाहते थे लेकिन उस भयंकर घटना के बाद पहले तो हमारी ज़िंदग़ी रुक सी गई और उसके बाद जैसे हमें लगातार पीछे धकेला जाता रहा.
मैंने ट्रेनों को हमेशा रेलवे लाइनों पर दौड़ते देखा था. मैंने कभी कोई बड़ा रेलवे स्टेशन नहीं देखा था.
जब गोधरा स्टेशन पर वो अमानवीय घटना घटी, मैं अपने पति के साथ थी. उस वक़्त मैंने बिल्कुल नहीं सोचा था कि इसके बाद कुछ इतना ख़तरनाक हो सकता है.
मैं और मेरे पति याक़ूब अपने 14 परिजनों की हत्या के बाद टूट गए थे लेकिन बाद में यही तकलीफ़ और निराशा हमारी ताक़त बन गई. पहले हम फ़िल्में देखते थे लेकिन पिछले 17 सालों में एक भी फ़िल्म नहीं देखी. याक़ूब ने सिर्फ़ एक फ़िल्म देखी, वो भी दोस्तों की ज़िद पर.
इन 17 सालों में बस एक राहत थी- हम दोनों के बीच किसी तरह की कड़वाहट या मतभेद का न होना.
इन वर्षों में बहुत से लोगों ने याक़ूब को क़ानूनी लड़ाई छोड़कर रोज़ी-रोटी पर ध्यान देने की सलाह दी.
ऐसी सलाहें देने वालों में हमारे बहुत से शुभचिंतक भी थे. वो हमारी आर्थिक तंगी के गवाह थे. उन्हें मालूम था कि हम कैसे इधर-उधर भटकते हुए जी रहे हैं.
कई बार हम दोनों को भी लगता था कि वो ठीक कह रहे हैं. वो सही थे लेकिन मैंने और मेरे पति ने हमेशा ये महसूस किया कि इंसाफ़ के लिए हमारी लड़ाई एक स्थायी ज़िंदगी के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ज़रूरी है और इसलिए हमने अपनी लड़ाई जारी रखी.
जब भी हमारे मन में लड़ाई छोड़ने का ख़याल आता, हमारी अंतरात्मा हमें रोक लेती और हम फिर अपने रास्ते पर लौट आते.
17 सालों की इस लड़ाई में हमें अनगिनत मुश्किलें पेश आईं लेकिन समाज, महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, सीबीआई, मानवाधिकार आयोग, सिविल सोसायटी और समाज के अलग-अलग तबके के लोगों ने हमारी मदद की इसलिए हम इन मुश्किलों का सामना कर पाए.
17 साल तक संघर्ष करने और नाइंसाफ़ी के साथ जीने के बावजूद मैंने और मेरे पति ने देश की क़ानून-व्यवस्था में भरोसा रखा. मुझे यक़ीन था कि एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा जब मुझे इंसाफ़ मिलेगा और मुझे लगता है कि मेरे यक़ीन की जीत हुई है.
अब मुझे इंसाफ़ मिल गया है लेकिन अपने परिवार के 14 लोगों को खोने का दर्द मेरे दिल से कभी जाता ही नहीं. अगर मैं दिन में ख़ुद को व्यस्त भी रखती हूं तो रात में वो डरावनी यादें मुझ तक वापस आ जाती हैं.
जब ये केस चल रहा था, मुझे हमेशा ऐसा लगता था जैसे कोई हर वक़्त मुझ पर नज़र रख रहा है और मेरा पीछा कर रहा है. अब जब मुझे न्याय मिल गया है, मैंने अहसास किया ये कुछ और नहीं बल्कि मेरे अंदर बैठा डर था.
हमें एक लंबी लड़ाई के बाद इंसाफ़ मिला लेकिन पूरे परिवार को खोने के दर्द और अपनी बेटी सालेहा की यादों ने मेरे अंदर और हमारी ज़िंदगियों में एक तरह का अकेलापन भर दिया, ये खालीपन हमारे अंदर बैठ चुका है और हमेशा हमारे साथ रहेगा.
अब मैं अपने बच्चों के साथ शांति से जीना चाहती हूं. मेरा सपना अपनी बेटी को वकील बनते और नाइंसाफ़ी का शिकार हुए लोगों को इंसाफ़ दिलाते देखना है.
मैं यही दुआ करती हूं देश में नफ़रत और हिंसा की जगह प्यार और अमन ले ले. (Source BBC)
Has Narendra Modi changed his ideology for Muslims ?